Artinya, Bhakti adalah Bhajan. himne siapa? dari Brahman , dari yang agung. Hebat dia yang bodoh dalam tingkat kesadaran, berkorban di antara pengorbanan, dihormati di antara para penyembah, adalah kepala satvat, adalah perwujudan sattva, dan meskipun satu, adalah penguasa banyak, pemberi perbuatan dan pemenuh kebutuhan umat.
Manusia telah mempercayai satu makhluk abadi (Brahm) ini sejak dahulu kala. Bhakti artinya dan tujuan ada dua. Ketika pencari mulai mengambil jus dalam instrumen itu sendiri, ia menjadi acuh tak acuh terhadap buahnya. Ini menjadi akhir dari cara. Tetapi setiap cara juga memiliki hasil yang berbeda. Bhakti juga memberikan hasil yang manis seperti kemerdekaan penuh, kemurnian, kemanunggalan dan pencapaian Tuhan kepada para pencari. Kesadaran akan Tuhan tidak berarti akhir dari jiwa, itu adalah untuk menikmati kebahagiaan dengan bersemayam di dalam Tuhan dengan kebaikan dan kebaikan.
Ini adalah pendapat Acharyas Ramanuja , Madhva , Nimbarka dll. Maharishi Dayanand menulis: Sama seperti dengan mendekati api, seseorang mengalami penghentian dingin dan panas, dengan cara yang sama seseorang mencapai penghentian kesedihan dan pencapaian kebahagiaan dengan mencapai Tuhan. Dengan menjadi dekat dengan Tuhan Yang Maha Esa, semua kesalahan dan kesedihan dihilangkan dan kualitas, perbuatan dan sifat jiwa menjadi murni, menyerupai kualitas, perbuatan dan sifat Tuhan Yang Maha Esa. Dengan pujian, doa dan penyembahan kepada Tuhan, kekuatan jiwa akan meningkat sedemikian rupa sehingga bahkan jika dia menerima kesedihan seperti gunung, dia tidak akan takut dan akan mampu menanggung semua orang.
प्रभु में पितृभावना रखते हैं क्योंकि पाश्चात्य विचारकों के अनुसार जीव को सर्वप्रथम प्रभु के नियामक, शासक एवं दण्डदाता रूप का ही अनुभव होता है। ब्रह्माण्ड का वह नियामक है, जीवों का शासक तथा उनके शुभाशुभ कर्मो का फलदाता होने के कारण न्यायकारी दंडदाता भी है। यह स्वामित्व की भावना है जो पितृभावना से थोड़ा हटकर है। इस रूप में जीव परमात्मा की शक्ति से भयभीत एवं त्रस्त रहता है पर उसके महत्व एवं ऐश्वर्य से आकर्षित भी होता है। अपनी क्षुद्रता, विवशता एवं अल्पज्ञता की दुःखद स्थिति उसे सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ एवं महान् प्रभु की ओर खींच ले जाती है। भक्ति में दास्यभाव का प्रारंभ स्वामी के सामीप्यलाभ का अमोघ साधन समझा जाता है। प्रभु की रुचि भक्त की रुचि बन जाती है। अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं का परित्याग होने लगता है। स्वामी की सेवा का सातत्य स्वामी और सेवक के बीच की दूरी को दूर करनेवाला है। इससे भक्त भगवान् के साथ आत्मीयता का अनुभव करने लगता है और उसके परिवार का एक अंग बन जाता है। प्रभु मेरे पिता हैं, मैं उनका पुत्र हूँ, यह भावना दास्यभावना से अधिक आकर्षणकारी तथा प्रभु के निकट लानेवाली है। उपासना शब्द का अर्थ ही भक्त को भगवान् के निकट ले जाना है।
वात्सल्यभाव का क्षेत्र व्यापक है। यह मानवक्षेत्र का अतिक्रांत करके पशु एवं पक्षियों के क्षेत्र में भी व्याप्त है। पितृभावना से भी बढ़कर मातृभावना है। पुत्र पिता की ओर आकर्षित होता है, पर साथ ही डरता भी है। मातृभावना में वह डर दूर हो जाता है। माता प्रेम की मूर्ति है, ममत्व की प्रतिमा है। पुत्र उसके समीप निःशंक भाव से चला जाता है। यह भावना वात्सल्यभाव को जन्म देती है। रामानुजीय वैष्णव सम्प्रदाय में केवल वात्सल्य और कर्ममिश्रित वात्सल्य को लेकर, जो मार्जारकिशोर तथा कपिकिशोर न्याय द्वारा समझाए जाते हैं, दो दल हो गए थे (टैकले और बडकालै)- एक केवल प्रपत्ति को ही सब कुछ समझते थे, दूसरे प्रपत्ति के साथ कर्म को भी आवश्यक मानते थे।
स्वामी तथा पिता दोनों को हम श्रद्धा की दृष्टि से अधिक देखते हैं। मातृभावना में प्रेम बढ़ जाता है, पर दाम्पत्य भावना में श्रद्धा का स्थान ही प्रेम ले लेता है। प्रेम दूरी नहीं नैकट्य चाहता है और दाम्पत्यभावना में यह उसे प्राप्त हो जाता है। शृंगार, मधुर अथवा उज्जवल रस भक्ति के क्षेत्र में इसी कारण अधिक अपनाया भी गया है। वेदकाल के ऋषियों से लेकर मध्यकालीन भक्त संतों की हृदयभूमि को पवित्र करता हुआ यह अद्यावधि अपनी व्यापकता एवं प्रभविष्णुता को प्रकट कर रहा है।
भक्ति क्षेत्र की चरम साधना सख्यभाव में समवसित होती है। जीव ईश्वर का शाश्वत सखा है। प्रकृति रूपी वृक्ष पर दोनों बैठे हैं। जीव इस वृक्ष के फल चखने लगता है और परिणामत: ईश्वर के सखाभाव से पृथक् हो जाता है। जब साधना, करता हुआ भक्ति के द्वारा वह प्रभु की ओर उन्मुख होता है तो दास्य, वात्सल्य, दाम्पत्य आदि सीढ़ियों को पार करके पुनः सखाभाव को प्राप्त कर लेता है।[3] इस भाव में न दास का दूरत्व है, न पुत्र का संकोच है और न पत्नी का अधीन भाव है। ईश्वर का सखा जीव स्वाधीन है, मर्यादाओं से ऊपर है और उसका वरेण्य बंधु है। आचार्य वल्लभ ने प्रवाह, मर्यादा, शुद्ध अथवा पुष्ट नाम के जो चार भेद पुष्टिमार्गीय भक्तों के किए हैं, उनमें पुष्टि का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं : कृष्णधीनातु मर्यादा स्वाधीन पुष्टिरुच्यते। सख्य भाव की यह स्वाधीनता उसे भक्ति क्षेत्र में ऊर्ध्व स्थान पर स्थित कर देती है।
भक्ति का तात्विक विवेचन वैष्णव आचार्यो द्वारा विशेष रूप से हुआ है। वैष्णव संप्रदाय भक्तिप्रधान संप्रदाय रहा है। श्रीमद्भागवत और श्रीमद्भगवद्गीता के अतिरिक्त वैष्णव भक्ति पर अनेक श्लोकबद्ध संहिताओं की रचना हुई। सूत्र शैली में उसपर नारद भक्तिसूत्र तथा शांडिल्य भक्तिसूत्र जैसे अनुपम ग्रंथ लिखे गए। [4]पराधीनता के समय में भी महात्मा रूप गोस्वामी ने भक्तिरसायन जैसे अमूल्य ग्रंथों का प्रणयन किया। भक्ति-तत्व-तंत्र को हृदयंगम करने के लिए इन ग्रंथों का अध्ययन अनिवार्यत: अपेक्षित है। आचार्य वल्लभ की भागवत पर सुबोधिनी टीका तथा नारायण भट्ट की भक्ति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है :
- सवै पुंसां परो धर्मो यतो भक्ति रधोक्षजे ।
- अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा सम्प्रसीदति ॥ ११.२.६
भगवान् में हेतुरहित, निष्काम एक निष्ठायुक्त, अनवरत प्रेम का नाम ही भक्ति है। यही पुरुषों का परम धर्म है। इसी से आत्मा प्रसन्न होती है। 'भक्तिरसामृतसिन्धु', के अनुसार भक्ति के दो भेद हैं: गौणी तथा परा। गौणी भक्ति साधनावस्था तथा परा भक्ति सिद्धावस्था की सूचक है। गौणी भक्ति भी दो प्रकार की है : वैधी तथा रागानुगा। प्रथम में शास्त्रानुमोदित विधि निषेध अर्थात् मर्यादा मार्ग तथा द्वितीय में राग या प्रेम की प्रधानता है। आचार्य वल्लभ द्वारा प्रतिपादित विहिता एवं अविहिता नाम की द्विविधा भक्ति भी इसी प्रकार की है और मोक्ष की साधिका है। शांडिल्य ने सूत्रसंख्या १० में इन्हीं को इतरा तथा मुख्या नाम दिए हैं।
श्रीमद्भागवत् में नवधा भक्ति का वर्णन है :
- श्रवणं कीर्तन विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
- अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ ७,५,२३
नारद भक्तिसूत्र संख्या ८२ में भक्ति के जो ग्यारह भेद हैं, उनमें गुण माहात्म्य के अन्दर नवधा भक्ति के श्रवण और कीर्तन, पूजा के अंदर अर्चन, पादसेवन तथा वंदन और स्मरण-दास्य-सख्य-आत्मनिवेदन में इन्हीं नामोंवाली भक्ति अंतभुर्क्त हो जाती है। रूपासक्ति, कांतासक्ति तथा वात्सल्यासक्ति भागवत के नवधा भक्तिवर्णन में स्थान नहीं पातीं।
निगुर्ण या अव्यक्त तथा सगुण नाम से भी भक्ति के दो भेद किए जाते हैं। गीता, भागवत तथा सूरसागर ने निर्गुण भक्ति को अगम्य तथा क्लेशकर कहा है, परन्तु वैष्णव भक्ति का प्रथम युग जो निवृत्तिप्रधान तथा ज्ञान-ध्यान-परायणता का युग है, निर्गुण भक्ति से ही संबद्ध है। चित्रशिखंडी नाम के सात ऋषि इसी रूप में प्रभुध्यान में मग्न रहते थे। राजा वसु उपरिचर के साथ इस भक्ति का दूसरा युग प्रारंभ हुआ जिसमें यज्ञानुष्ठान की प्रवृत्तिमूलकता तथा तपश्चर्या की निवृत्तिमूलकता दृष्टिगोचर होती है। तीसरा युग कृष्ण के साथ प्रारंभ होता है जिसमें अवतारवाद की प्रतिष्ठा हुई तथा द्रव्यमय यज्ञों के स्थान पर ज्ञानमय एवं भावमय यज्ञों का प्रचार हुआ।
चतुर्थ युग में प्रतिमापूजन, देवमंदिर निर्माण, शृंगारसज्जा तथा षोडशोपचार (कलश-शंख-घंटी-दीप-पुष्प आदि) पद्धति की प्रधानता है। इसमें बहिर्मुखी प्रवृत्ति है। पंचम युग में भगवान् के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम के अतीव आकर्षक दृश्य दिखाई देते हैं। वेद का यह पुराण में परिणमन है। इसमें निराकार साकार बना, अनंत सांत तथा सूक्ष्म स्थूल बना। प्रभु स्थावर एवं जंगम दोनों की आत्मा है। फिर जंगम चेतना ही क्यों ? स्थावर द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति और भक्ति क्यों न की जाय ?
वैष्णव आचार्य, कवि एवं साधक स्थूल तक ही सीमित नहीं, वे स्थूल द्वारा सूक्ष्म तक पहुँचे हैं। उनकी रचनाएँ नाम द्वारा नामी का बोध कराती हैं। उन्होंने भगवान् के जिन नामों रूपों लीलाओं तथा धामों का वर्णन किया है, वे न केवल स्थूल मांसपिंडों से ही संबंधित हैं, अपितु उसी के समान आधिदैविक जगत् तथा आध्यात्मिक क्षेत्र से भी संबंधित हैं। राधा और कृष्ण, सीता और राम, पार्वती और परमेश्वर, माया और ब्रह्म, प्रकृति और पुरुष, शक्ति और शक्तिमान्, विद्युत् और मेघ, किरण और सूर्य, ज्योत्स्ना और चंद्र आदि सभी परस्पर एक दूसरे में अनुस्यूत हैं। विरहानुभूति को लेकर भक्तिक्षेत्र में वैष्णव भक्तों ने, चाहे वे दक्षिण के हों या उत्तर के, जिस मार्मिक पीड़ा को अभिव्यक्त किया है, वह साधक के हृदय पर सीधे चोट करती है और बहुत देर उसे वहीं निमग्न रखती है। लोक से कुछ समय के लिए आलोक में पहुँचा देनेवाली वैष्णव भक्तों की यह देन कितनी श्लाघनीय है, कितनी मूल्यवान् है। और इससे भी अधिक मूल्यवान् है उनकी स्वर्गप्राप्ति की मान्यता। मुक्ति नहीं, क्योंकि वह मुक्ति का ही उत्कृष्ट रूप है, भक्ति ही अपेक्षणीय है। स्वर्ग परित्याज है, उपेक्षणीय है। इसके स्थान पर प्रभुप्रेम ही स्वीकरणीय है। वैष्णव संप्रदाय की इस देन की अमिट छाप भारतीय हृदय पर पड़ी है। उसने भक्ति को ही आत्मा का आहार स्वीकार किया है।
भक्ति तर्क पर नहीं, श्रद्धा एवं विश्वास पर अवलंबित है। पुरुष ज्ञान से भी अधिक श्रद्धामय है। मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा बन जाता है, इससे भी अधिक सत्य इस कथन में है कि मनुष्य की जैसी श्रद्धा होती है उसी के अनुकूल और अनुपात में उसका निर्माण होता है। प्रेरक भाव है, विचार नहीं। जो भक्ति भूमि से हटाकर द्यावा में प्रवेश करा दे, मिट्टी से ज्योति बना दे, उसकी उपलब्धि हम सबके लिए निस्संदेह महीयसी है। घी के ज्ञान और कर्म दोनों अर्थ हैं। हृदय श्रद्धा या भाव का प्रतीक है। भाव का प्रभाव, वैसे भी, सर्वप्रथम हृदय के स्पंदनों में ही लक्षित होता है।
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